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वैदिक वाङ्मय में पर्यावरण व वर्तमान समय में उसकी प्रासङ्गिता

स्वराज न्यूज/मोतिहारी। पर्यावरण एक व्यापक शब्द है। यह उन सम्पूर्ण शक्तियों, परिस्थितियों एवं वस्तुओं का योग है, जो मानव जगत को परावृत्त करती हैं तथा उनके क्रियाकलापों को अनुशासित करती हैं। हमारे चारों ओर जो विराट प्राकृतिक परिवेश व्याप्त है, उसे ही हम पर्यावरण कहते हैं। परस्परावलम्बी सम्बन्ध का नाम पर्यावरण है। हमारे चारों ओर जो भी वस्तुएं परिस्थितियां एवं शक्तियां विद्यमान हैं, वे सब हमारे क्रियाकलापों को प्रभावित करती हैं और उसके लिए एक दायरा सुनिश्चित करती हैं। इसी दायरे को हम पर्यावरण कहते हैं। यह दायरा व्यक्ति, गांव, नगर, प्रदेश, महाद्वीप, विश्व अथवा संपूर्ण सौरमंडल या ब्रह्मांड हो सकता है। इसीलिए वेदकालीन मनीषियों ने द्युलोक से लेकर व्यक्ति तक, समस्त परिवेश के लिए शान्ति की प्रार्थना की है। शुक्ल यजुर्वेद में ऋषि प्रार्थना करता है,

‘ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षॅं शान्ति:
पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:
सर्वं शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि ॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥ (शुक्ल यजुर्वेद, 36/17)। इसलिए वैदिक काल से आज तक चिन्तकों और मनीषियों द्वारा समय-समय पर पर्यावरण के प्रति अपनी चिन्ता को अभिव्यक्त कर मानव –जाति को सचेत करने के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह किया गया है।

इस प्रकार द्युलोक से लेकर पृथ्वी के सभी जैविक और अजैविक घटक सन्तुलन की अवस्था में रहें, अदृश्य आकाश (द्युलोक), नक्षत्रयुक्त दृश्य आकाश (अन्तरिक्ष), पृथ्वी एवं उसके सभी घटक-जल, औषधियां, वनस्पतियां, सम्पूर्ण संसाधन (देव) एवं ज्ञान-संतुलन की अवस्था में रहें, तभी व्यक्ति और विश्व, शान्त एवं सन्तुलन में रह सकता है। प्रकृति में हमें जो कुछ भी परिलक्षित होता है, सभी सम्मिलित रूप में पर्यावरण की रचना करते हैं। जैसे-जल, वायु, मृदा और प्राणी आदि। अर्थात् जीवों की अनुक्रियाओं को प्रभावित करने वाली समस्त भौतिक और जीवीय परिस्थितियों का योग पर्यावरण है। इसलिए विद्वानों का मत है कि प्रकृति ही मानव का पर्यावरण है और यही उसके संसाधनों का भंडार है।
पर्यावरण के सन्तुलन में वृक्षों के महान् योगदान एवं भूमिका को स्वीकार करते हुए मुनियों ने बृहत् चिन्तन किया है। मत्स्य पुराण में उनके महत्व एवं महात्म्य को स्वीकार करते हुए कहा गया है कि दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है-
दश कूप समा वापी, दशवापी समोहद्रः।
दशहृद समः पुत्रो, दशपुत्रो समो द्रुमः।
पर्यावरण संरक्षित व प्रदुषण मुक्त हेतु ।
यज्ञादिक कर्म महत्वपूर्ण है पवित्र आचरण व व्यवहार से सभी लोग प्रदूषण से बचने के लिए प्रयत्नशील हों । यज्ञ से वर्षा , वर्षा से अन्न , अन्न से भूतों की रक्षा और इससे चराचर का कल्याण होगा । ज्यादा से ज्यादा वृक्षारोपण एवं उनका संरक्षण मुख्य है। वेदों में तो पर्यावरण संरक्षण हेतु सम्पूर्णता है यहां तक दातुन ग्रहण करने से पूर्व वृक्षों का प्रार्थना करने का विधान है । हवनीय द्रव्य ग्रहण करने का भी विधान बनाया गया है यानी हम यह कह सकते हैं पर्यावरण संरक्षण हेतु वैदिक वाङ्मय के शब्दों को आज के शिक्षा में उपयोग करना चाहिए । उक्त बातें चकिया प्रखण्ड परसौनी खेम स्थित महर्षि गौतम ज्योतिष परामर्श एवं अनुसंधान केन्द्र चम्पारण’काशी’के आचार्य अभिषेक कुमार दूबे ने बताया ।

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